

अमीर खुसरो की रचनायें मुझे बेहद पसंद हैं॥ इनमें से एक आपके नज़र...
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,दुराये नैना बनाये बतियां।कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,न लेहो काहे लगाये छतियां।।शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह।सखि पिया को जो मैं न देखूंतो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।।यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादूब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं।किसे पडी है जो जा सुनावेपियारे पी को हमारी बतियां।।चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरानहमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह।न नींद नैना, ना अंग चैनाना आप आवें, न भेजें पतियां।।बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबरकि दाद मारा, गरीब खुसरौ।सपेट मन के, वराये राखूंजो जाये पांव, पिया के खटियां।।
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,दुराये नैना बनाये बतियां।कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,न लेहो काहे लगाये छतियां।।शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह।सखि पिया को जो मैं न देखूंतो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।।यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादूब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं।किसे पडी है जो जा सुनावेपियारे पी को हमारी बतियां।।चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरानहमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह।न नींद नैना, ना अंग चैनाना आप आवें, न भेजें पतियां।।बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबरकि दाद मारा, गरीब खुसरौ।सपेट मन के, वराये राखूंजो जाये पांव, पिया के खटियां।।
शिवानी ..
2 टिप्पणियां:
शिवानी जी,आपका ब्लॉग देखकर मेरी सबसे पहली प्रतिक्रिया तो यही है कि ये आपकी रंग में रंगा हुआ है और आपकी तरह ही काफी खूबसूरत है। आपके ब्लॉग में छपी पहली रचना के बारे में आपने लिखा है कि 'अमीर खुसरो की रचनायें मुझे बेहद पसंद हैं।' लेकिन मुझे लगता है कि ये आपकी समझ से बाहर होगा। दरअसल मैंन इसे समझने के लिए काफी सिर खपाया, लेकिन भाषा की दिक्कतों ने मुझे काफी परेशान किया। मेरा मानना है कि जो चीजें खुद की समझ से बाहर हो,
उसे दूसरों के लिए नहीं परोसना चाहिए। इस रचना का अनुवाद भी आपको साथ में छापना चाहिए था,
ताकि आम पाठक इसे आसानी से समझ सकें। हालांकि दूसरों की अच्छी रचनाओं से रू-ब-रू करा रही हैं ये अच्छा प्रयास है। वैसे उम्मीद है कि हमें
आपकी स्वलिखित और मौलिक रचनाएं भी जल्द पढ़ने को मिलेंगी। ब्लॉग शुरू करने के लिए आपको हमारी ओर से बधाई!!!- अजय शेखर प्रकाश, वॉयस ऑफ इंडिया
ग़ुलाम अली साहब ने इस ग़जल को अपना स्वर दिया है। बेहतरनी, हालांकि इसकी प्रारंभिक पंक्तियां वाकई समझ से बाहर हैं लेकिन गुलाम अली साहब ने जिस अंदाज़ और संगीत में गाया है. उसमें ये पंक्तियां वाकई सुनने में अच्छी लगती हैं।
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